ऐसी अक्षरे

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मंदार शिंदे
Mandar Shinde

Saturday, November 12, 2011

Don't think too much!

'Don't think too much,'
You tell me.
But how much is too much?
Who knows?
To decide how much,
Have to think again.
That would be too much,
For sure!

But somebody has to think.
Even though everybody does,
Somebody has to think more,
A little more!
Think ahead of what others think.
Think beyond self.
Think beyond thoughts.
Will you?
I will, for sure!
Don’t know what’ll come out.
Not sure what’ll change,
If something changes at all…
But I’ll do my bit -
I’ll think!

You do your bit -
Just don’t tell me,
‘Don’t think too much!’

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Friday, November 11, 2011

Dream...

What happens when,
In your sleep,
Inside your dream,
You feel it’s enough
And you want to get out,
But you can not?
You just can not!
Because you can not wake up
Inside a dream,
Where you’re awake.
And looking around at things
That you never expected
To be there
At that time
At that place
In that way!

True, you can not wake up
Whatever may come…
But yes, you can
Sleep again
Inside your dream
And dream a new dream
With your own rules!
You can
At least try…

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Monday, November 7, 2011

खोटारड्यांच्या वस्तीत ह्या...

सांगायचे आहे मला ते सत्य मी झाकतो आहे
खोटारड्यांच्या वस्तीत ह्या चुपचाप मी राहतो आहे

दिसत असले जरी मला हे उजेडातले पाप आहे
डोळे मिटून माझ्यापुरती दिवसाला रात्र मानतो आहे

उत्तरे नसलेल्या प्रश्नांची अगणित इथे पैदास आहे
अन्‌ उत्तरे मिळतील ज्यांची प्रश्न असे मी टाळतो आहे

तर्कबुद्धी भ्रमविणारी दुनिया जणू मयसभाच आहे
आंधळ्यांच्या राज्यात दिवे का उगा मी लावतो आहे

माणसाच्या मुखवट्यामागे श्वापदेच फिरती इथे
देव कुठुनी भेटायचा इथे माणसाचीच वानवा आहे

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सोसल्या जगण्याच्या वाटेवर रोज नव्या व्यथा
ऐकल्याही अन् तितक्याच फसव्या सुखाच्या कथा

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मगर अब नहीं

जागा करते थे इंतजार में मगर अब नहीं,
क्या करें अब सपने ज्यादा वफादार लगते हैं।

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Saturday, November 5, 2011

"अपने बारे में" - जावेद अख़्तर

...मुझे कॉलेज में डिबेट बोलने का शौक हो गया है। पिछले तीन बरस से भोपाल रोटरी क्लब की डिबेट का इनाम जीत रहा हूँ। इंटर कॉलेज डिबेट की बहुत सी ट्राफियाँ मैंने जीती हैं। विक्रम यूनिवर्सिटी की तरफ़ से दिल्ली यूथ फ़ेस्टिवल में भी हिस्सा लिया है। कॉलेज में दो पार्टियाँ हैं और एलेक्शन में दोनों पार्टियाँ मुझे अपनी तरफ़ से बोलने को कहती हैं... मुझे एलेक्शन से नहीं, सिर्फ़ बोलने से मतलब है इसलिए मैं दोनों की तरफ़ से तक़रीर कर देता हूँ।
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...अब मैं मुश्ताक सिंह के साथ हूँ। मुश्ताक सिंह नौकरी करता है और पढ़ता है। वो कॉलेज की उर्दू एसोसिएशन का सद्र है। मैं बहुत अच्छी उर्दू जानता हूँ। वो मुझसे भी बेहतर जानता है। मुझे अनगिनत शेर याद हैं। उसे मुझसे ज़्यादा याद हैं। मैं अपने घर वालों से अलग हूँ। उसके घर वाले हैं ही नहीं।... देखिए हर काम में वो मुझसे बेहतर है।
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...मैं बंबई सेंट्रल स्टेशन पर उतरा हूँ। अब इस अदालत में मेरी ज़िंदगी का फ़ैसला होना है। बंबई आने के छह दिन बाद बाप का घर छोड़ना पड़ता है। जेब में सत्‍ताईस नए पैसे हैं। मैं ख़ुश हूँ कि ज़िंदगी में कभी अट्ठाईस नए पैसे भी जेब में आ गए तो मैं फ़ायदे में रहूँगा और दुनिया घाटे में।
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...मैं बांदरा में जिस दोस्त के साथ एक कमरे में आकर रहा हूँ वो पेशावर जुआरी है। वो और उसके दो साथी जुए में पत्ते लगाना जानते हैं। मुझे भी सिखा देते हैं। कुछ दिनों उनके साथ ताश के पत्तों पर गुज़ारा होता है। फिर वो लोग बंबई से चले जाते हैं और मैं फिर वहीं का वहीं - अब अगले महीने इस कमरे का किराया कौन देगा। एक मशहूर और कामयाब रायटर मुझे बुलाके ऑफ़र देते हैं कि अगर मैं उनके डॉयलॉग लिख दिया करूँ (जिन पर ज़ाहिर है मेरा नहीं उनका ही नाम जाएगा) तो वो मुझे छह सौ रुपये महीना देंगे। सोचता हूँ ये छह सौ रुपये इस वक़्त मेरे लिए छह करोड़ के बराबर हैं, ये नौकरी कर लूँ, फिर सोचता हूँ कि नौकरी कर ली तो कभी छोड़ने की हिम्मत नहीं होगी, ज़िंदगी-भर यही करता रह जाऊँगा, फिर सोचता हूँ अगले महीने का किराया देना है, फिर सोचता हूँ देखा जाएगा। तीन दिन सोचने के बाद इनकार कर देता हूँ। दिन, हफ़्ते, महीने, साल गुज़रते हैं। बंबई में पाँच बरस होने को आए, रोटी एक चाँद है हालात बादल, चाँद कभी दिखाई देता है, कभी छुप जाता है। ये पाँच बरस मुझ पर बहुत भारी थे मगर मेरा सर नहीं झुका सके। मैं नाउम्मीद नहीं हूँ। मुझे यक़ीन है, पूरा यक़ीन है, कुछ होगा, कुछ ज़रूर होगा, मैं यूँ ही मर जाने के लिए नहीं पैदा हुआ हूँ।
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..."मैं जिस दुनिया में रहता हूँ वो उस दुनिया की औरत है" - ये पंक्ति अगर बरसों पहले 'मज़ाज़' ने किसी के लिए न लिखी होती तो मैं शबाना के लिए लिखता।
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- जावेद अख़्तर

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झूठा

चले गए वो प्यार को हमारे झूठा ठहराकर,
मनाने आते तो बता देते ये रुठना झूठमूठ का था।

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