सर से पाँव तक अपनी ही उलझनों में हूँ उलझा
और दिल पूछता है दुनिया की उलझनों का क्या?
वक्त इतना नहीं के देखूँ खुद को आईने में
और वो पूछते है मेरे साज-सिंगार का क्या?
निकला जो घर से तो कुछ भी जाना-पहचाना नहीं
और रास्ता पूछता है मेरी खोयी मंझिलों का क्या?
तोड आया हूँ रिश्ता खुशियों से अपना
और ग़म पूछता है मेरे रिश्तेदारों का क्या?
एक पल पीछे मुडकर देखा तो ये हाल है
और वक्त पूछता है पीछे देखकर चलनेवालों का क्या?
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