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मंदार शिंदे
Mandar Shinde

Saturday, March 3, 2012

हम देखेंगे

हम देखेंगे, लाज़िम है के हम भी देखेंगे
वो दिन की जिसका वादा है, जो लौहे-अज़ल पे लिखा है
हम देखेंगे

जब जुल्मो-सितम के कोहे-गरां, रुई की तरह उड़ जाएंगे
हम महकूमों के पांव तले, ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहले-हिकम के सर ऊपर, जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
हम देखेंगे

जब अर्ज़े-खुदा के काबे से, सब बुत उठवाए जाएंगे
हम अहले-सफा मर्दूदे-हरम, मसनद पे बिठाए जाएंगे
सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे
हम देखेंगे

बस नाम रहेगा अल्लाह का
जो गायब भी है हाज़िर भी, जो मंज़र भी है नाज़िर भी
उठ्ठेगा अनलहक़ का नारा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो
और राज़ करेगी खल्क़े-खुदा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो
हम देखेंगे

- फैज़ अहमद फैज़

लाज़िम : जरुर
लौहे-अज़ल पे लिखा : विधीलिखित
कोहे-गरां : दुर्लंघ्य पर्वत / अडचणींचे डोंगर
रुई : कापूस
महकूम : क्षूद्र
अहले-हिकम : जुलमी लोक
बुत : मूर्ती / पुतळा
अर्ज़े-खुदा के काबे से : ईश्वराच्या दरबारातून
अहले-सफा : सज्जन
मर्दूदे-हरम : धर्मातून बहिष्कृत
मसनद : गादी / सत्ता
मंज़र : दृश्य
नाज़िर : बघणारा
अनलहक़ : अहंब्रह्मास्मि / मीच ईश्वर आहे
खल्क़े-खुदा : परमेश्वराची लेकरं


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