आँख न मूँदौं, कान न रूँधौं,
तनिक कष्ट नहीं धारौं।
खुले नैन पहचानौं हँसि हँसि
सुंदर रूप निहारौं।।
जहँ जहँ डोलौं सो परिकरमा,
जो कुछ करौं सो सेवा।
जब सोवौं तब करौं दंडवत,
पूजौं और न देवा।।
कहौं सो नाम, सुनौं सो सुमिरन
खावँ पियौं सो पूजा।
गिरह उजाड एकसम लेखौं
भाव मिटावौं दूजा।।
सबद निरंतरसे मन लागा
मलिन वासना त्यागी।
ऊठत बैठत कबहुँ न छटैं
ऐसी तारी लागी।।
- कबीर
ऐसी अक्षरे
Sunday, June 10, 2012
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