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मंदार शिंदे
Mandar Shinde

Sunday, July 16, 2017

रंजिश ही सही...

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ
आ फिर से मुझे छोड के जाने के लिए आ

पहले से मरासिम ना सही, फिर भी कभी तो
रस्म-ओ-राहे दुनिया ही निभाने के लिए आ

किस किस को बतायेंगे जुदाई का सबब हम
तू मुझसे खफा है तो जमाने के लिए आ

कुछ तो मेरे पिन्दार-ए-मोहब्बत का भरम रख
तू भी तो कभी मुझको मनाने के लिए आ

इक उम्र से हूँ लज्जत-ए-गिरिया से भी महरूम
ऐ राहत-ए-जाँ मुझको रुलाने के लिए आ

अब तक दिल-ए-खुश फहम को तुझसे हैं उम्मीदें
ये आखिरी शम्में भी बुझाने के लिए आ

माना की मोहब्बत का छिपाना है मोहब्बत
चुपके से किसी रोज जताने के लिए आ

जैसे तुझे आते हैं ना आने के बहाने
ऐसे ही किसी रोज ना जाने के लिए आ

- अहमद फराज / तालिब बागपती
- मेहदी हसन

रंजिश = दुःख
मरासिम = नातं
पिन्दार = इगो
लज्जत = स्वाद
गिरिया = रडू, अश्रू


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