बेहद उमस! मन की गहरी से गहरी पर्त में एक अजब-सी बेचैनी। नींद आ भी रही है और नहीं भी आ रही। नीम की डालियाँ खामोश हैं। बिजली के प्रकाश में उनकी छायाएँ मकानों, खपरैलों, बारजों और गलियों में सहमी खड़ी हैं।
मेरे अर्धसुप्त मन में असंबद्ध स्वप्न-विचारों का सिलसिला।
स्वर्ग का फाटक। रूप, रेखा, रंग, आकार कुछ नहीं जैसा अनुमान कर लें। अतियथार्थवादी कविताएँ जिनका अर्थ कुछ नहीं जैसा अनुमान कर लें। फाटक पर रामधन बाहर बैठा है। अंदर जमुना श्वेतवसना, शांत, गंभीर। उसकी विश्रृंखल वासना, उसका वैधव्य, पुरइन के पत्तों पर पड़ी ओस की तरह बिखर चुका है, वह वैसी ही है जैसी तन्ना को प्रथम बार मिली थी।
फाटक पर घोड़े की नालें जड़ी हैं। एक, दो, असंख्य! दूर धुंधले क्षितिज से एक पतला धुएँ की रेखा-सा रास्ता चला आ रहा है। उस पर कोई दो चीजें रेंग रही हैं। रास्ता रह-रह कर काँप उठता है, जैसे तार का पुल।
बादलों में एक टार्च जल उठती है। राह पर तन्ना चले आ रहे हैं। आगे-आगे तन्ना, कटे पाँवों से घिसलते हुए, पीछे-पीछे उनकी दो कटी टाँगें लड़खड़ाती चली आ रही है। टाँगों पर आर.एम.एस. के रजिस्टर लदे हैं।
फाटक पर पाँव रुक जाते हैं। फाटक खुल जाते हैं। तन्ना फाइल उठा कर अंदर चले जाते हैं। दोनों पाँव बाहर छूट जाते हैं। बिस्तुइया की कटी हुई पूँछ की तरह छटपटाते हैं।
कोई बच्चा रो रहा है। वह तन्ना का बच्चा है। दबे हुए स्वर : यूनियन, एस.एम.आर., एम.आर.एस., आर.एम.एस., यूनियन। दोनों कटे पाँव वापस चल पड़ते हैं, धुएँ का रास्ता तार के पुल की तरह काँपता है।
दूर किसी स्टेशन से कोई डाकगाड़ी छूटती है।...
...मेरा मन और भी उदास हो गया और मैंने सोचा चलो माणिक मुल्ला के यहाँ ही चला जाए। मैं पहुँचा तो देखा कि माणिक मुल्ला चुपचाप बैठे खिड़की की राह बादलों की ओर देख रहे हैं और कुरसी से लटकाए हुए दोनों पाँव धीरे-धीरे हिला रहे हैं। मैं समझ गया कि माणिक मुल्ला के मन में कोई बहुत पुरानी व्यथा जाग गई है क्योंकि ये लक्षण उसी बीमारी के होते हैं। ऐसी हालत में साधारणतया माणिक-जैसे लोगों की दो प्रतिक्रियाएँ होती हैं। अगर कोई उनसे भावुकता की बात करे तो वे फौरन उसकी खिल्ली उड़ाएँगे, पर जब वह चुप हो जाएगा तो धीरे-धीरे खुद वैसी ही बातें छेड़ देंगे। यही माणिक ने भी किया। जब मैंने उनसे कहा कि मेरा मन बहुत उदास है तो वे हँसे और मैंने जब कहा कि कल रात के सपने ने मेरे मन पर बहुत असर डाला है तो वे और भी हँसे और बोले, 'उस सपने से तो दो ही बातें मालूम होती हैं।'
'क्या?' मैंने पूछा।
'पहली तो यह कि तुम्हारा हाजमा ठीक नहीं है, दूसरे यह कि तुमने डांटे की 'डिवाइना कामेडिया' पढ़ी है जिसमें नायक को स्वर्ग में नायिका मिलती है और उसे ईश्वर के सिंहासन तक ले जाती है।' जब मैंने झेंप कर यह स्वीकार किया कि दोनों बातें बिलकुल सच हैं तो फिर वे चुप हो गए और उसी तरह खिड़की की राह बादलों की ओर देख कर पाँव हिलाने लगे।
'सूरज का सातवाँ घोडा'
लेखक : धर्मवीर भारती
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